हनुमानजी ने रात में लंका में प्रवेश किया, वह भी मच्छर जितना बन कर। भक्ति को पाना है तो छोटे बनकर जाओ। और भक्ति को छिपाओ, कोई देखे न, इसीलिए रात को गए, माने प्रदर्शन मत करो, निराभिमानी होकर रहो।
लंकिनी मिली तो हनुमानजी से बोली- “सो कह चलेसि मोहि निंदरी” मेरी उपेक्षा? यही राक्षसी स्वभाव है। संत कितना ही छोटा बनकर क्यों न चलता हो, राक्षसी प्रवृत्ति वाले सरल को मूर्ख, सहज को मजबूर और विनम्र को कायर समझते हैं।
लंकिनी बोली कि मैं चोरों को खाती हूँ। हनुमानजी ने यह सुना तो लंकिनी को एक मुक्का मारा। लोगों ने पूछा कि वह तो अपना काम ही कर रही थी, आपने बिना बात के उसे मुक्का क्यों मार दिया?
देखो! हनुमानजी ने उसे झूठ बोलने का दंड दिया। कि तूं चोरों को नहीं खाती, तूं तो भक्तों को खाना चाहती है। अगर तूं चोरों को खाती, तो रावण जब सीताजी को चुरा कर आ रहा था, तब तूं रावण को क्यों नहीं खा गई?
ध्यान दें! अविद्या ही लंकिनी है। यही शरीर रूपी लंका की चौकीदारी करती है। और मुक्का बाहर निकलती इन्द्रियों को समेट कर अंतर्मुखी कर लेने का संकेत है। बहिर्मुखी मनुष्य अविद्या का पार नहीं पा सकता। इन्द्रियाँ संयमित हुईं तो अविद्या का प्रभाव समाप्त हुआ, विद्या के क्षेत्र में प्रवेश मिला, आवरण हटा। जो अविद्या रास्ता रोक रही थी, वही विद्या होकर लंका का ज्ञान देने लगी।
संत-संग हुआ तो सत्संग मिला। सत्संग से लंकिनी को अपवर्ग सुख से भी अधिक सुख मिला। अ-पवर्ग, जिसमें “प फ ब भ म” ना हो, पाप, फंदा, वासना, भ्रम-भय, मोह-ममता-मद-मत्सर न हो, माने मोक्ष। मोक्ष के सुख से, क्षणभर के सत्संग का सुख अधिक है। जो सुख रामकथा में है वह कैवल्य में भी नहीं है।
और भी, संत सजा देकर सज़ा देता है, वह मारता नहीं, सुधारता है। किसी को मिटाना संत का उद्देश्य नहीं, उसके भीतर की बुराई मिटा देना उद्देश्य है। हनुमानजी भी बुरे के नहीं, बुराई के विरोधी हैं।
!! जय सियाराम !!