ज्योतिष पाठ 06-अयनांश /सायन / निरयण

सायन / निरयण / अयनांश

प्रारम्भिक ज्योतिषी को सायन निरयण और अयनांश ये शब्द भ्रमित कर देते है। तुलनात्मक जब वह भारतीय और पाश्चात्य कुंडलियो का अवलोकन करता है तो मालूम होता है कि जो ग्रह या लग्न भारतीय कुंडली मे जिस राशि या स्थान मे है वही पाश्चात्य कुंडली मे अन्यत्र राशि अथवा स्थान मे है। वास्तव मे यह अंतर गणना बिन्दुओ पर आश्रित प्रचलित पद्धतियो के कारण है।

इतिहास : वैदिक काल (ई.पू. 5000 से ई.पू. 1900) मे खगोल और ज्योतिष का विकास हुआ। सभ्यता द्वय हरप्पन्स (असुर) मे निरयण और क्लीबगनस (सुर) मे सायन सिद्धांत प्रचलन मे था। पश्चात दोनो सभ्यताओ का पलायन होता रहा। ई.पू. 1400 मे गर्ग व पराशर होरा मे सायन व निरयण तथा सैद्धांतिक खगोल या वैदिक ज्योतिष पर साहित्य लिखा गया। वैदिक – सुर मे सायन यानि नक्षत्र चक्र तथा अवैदिक – असुर मे राशि चक्र प्रचलित था। सन 500 से 800 तक आर्यभट्ट व वराहमिहिर का कार्यकाल रहा। वराहमिहिर वास्तव ज्योतिष के अंतिम स्थापक आचार्य थे। वराहमिहिर के समय अयनांश संस्कार की आवश्यकता नही होती थी। अर्थात सायन निरयण गणना समान थी। पश्चात सन 800 से 1500 तक वैष्णव मतेन और ब्राह्मण विद्जन ज्योतिष साहित्य को मनमाने ढंग से नष्ट करते रहे।
इस प्रकार ज्योतिष के दो अंधकार युग ई.पू. 1900 से सन 500 तक और सन 800 से 1500 तक रहे। यह स्पष्ट नही है कि निरयण पद्धति जो राशि चक्र और सूर्य सिद्धांत पर आधारित है, वह भारत मे तथा विदेशो मे सायन पद्धति किस प्रकार प्रचलित हुई।

दूसरा पहलु यह मानता है कि वेदो मे ऋग्वेद और अथर्ववेद मे सायन सिद्धांत को मान्यता रही।
1- यह अवैदिक सिद्धांत कहा से प्रारम्भ हुआ इस पर कोई तथ्य नही है।
2- यह वैदिक सिद्धांत से ज्यादा उन्नत है, यह स्पष्ट नही है।
3- विज्ञान अनुसार कोई भी अयनांश प्रामाणिक नही है क्योकि नक्षत्र समूह निरंतर बदलता रहता है।
4- सायन मे कोई परिवर्तन नही होता क्योकि सम्पात का प्रारम्भ हमेशा 21 मार्च से होता है।

प्राचीन भारतीय खगोल वेत्ता दो प्रकार के योगो का उपयोग किया करते थे। वे सायन सूर्य और सायन चन्द्रमा के योग (जोड़) को बहुत महत्व देते थे। सा. सू. + सा. च. के अंश 180 को व्यतिपात तथा 360 को वैघृति मानते थे। इनकी गणना विशेष योगो मे किया करते थे। इससे सिद्ध होता है कि सायन सिद्धांत को मान्यता थी।

मतमतान्तर – ज्योतिष सम्बन्धी सायन निरयण ऐसा विषय है कि अनभिज्ञो की भी अभिरुचि है। सायन या निरयण गणना से कार्य किया जाय ? इस पर मतैक्यता नही है। कुछ विद्जन ग्रह जनित प्राकृतिक उपद्रव, परिवर्तन का निर्णय ग्रह और पृथ्वी के पारस्परिक सम्बन्धो की गणना सायन से करते है, तथा मनुष्य (जातक) के भाग्याभाग्य, परिणाम का निर्णय, निरयण नक्षत्रो मे ग्रहो के प्रवेश और भौगोलिक स्थान इन दोनो के तारतम्य से करते है, अर्थात निरयण गणना से करते है, और इसे जातक पद्धति कहते है।

अन्य विद्जन इससे सहमत नही है। यह विचारणीय है कि :-
1- प्राकृतिक उपद्रव और भाग्याभाग्य मे क्या कोई सम्बन्ध नही है। प्राकृतिक उपद्रव जैसे – समुद्री तुफान, चक्रवात, ज्वालामुखी विस्फोट, भूकम्प इत्यादि मे सैकड़ो मानव काल-कलवित हो जाते है, तो फिर कैसे मान लिया जाय कि मानव के भाग्याभाग्य मे सायन प्रणाली का स्थान नही है।
2- यह ठीक है कि फलादेश मे राशियो का भी महत्व है, परन्तु यह कैसे मान लिया जाय की सायन प्रणाली तर्क विरुद्ध है। प्रत्येक क्षण प्रत्येक ग्रह प्रत्यक्ष रूप से किसी-न-किसी राशि मे, किसी-न-किसी नक्षत्र के सामने रहता ही है। मान लिया जाय की किसी काल मे सूर्य सायन दृष्टि से मकर राशि मे और निरयण दृष्टि से धनु राशि मे है। जहा धनु राशि के तारिकाओ का प्रभाव पड़ेगा वही मकर राशि के तारिकाओ का प्रभाव भी पड़ेगा, अतएव केवल निरयण प्रणाली ही तर्क सम्मत नही है।
3- ब्रम्ह्माण्ड मे कोई भी पिंड स्थिर नही है। नक्षत्रगण-तारे भी मंद गति से गतिमान है, वे कुछ वर्षो पश्चात दूसरे स्थान पर दृश्य हो जाते है। इस प्रकार तारापुंज की आकृति बदल जाती है। जो तारा आज एक राशि मे है वह गतिमान होकर दूसरी राशि मे हो सकता है। अतएव मानव भाग्याभाग्य को निर्धारित करने मे सायन प्रणाली भी तर्क सम्मत है।
4- भारतीय फलित ग्रन्थो मे कई जातक शास्त्र है परन्तु किसी की भूमिका मे ग्रह गणित के लिए सायन या निरयण का उल्लेख नहीं है। वे कितने अयनांश के लिए उपयोगी है यह स्पष्ट नही है। अतएव निरयण पर ही वर्तमान पथ तर्क सम्मत नही हो सकता है।

परिभाषा :सायन = स + अयन* यानि अयन सहित या चलायमान भचक्र TROPICAL / MOVABLE ZODIAC एक सायन वर्ष 365. 2422 दिन का होता है। (365 days, 5 hours, 48 minutes, 45 seconds)
निरयण = नि + अयन यानि अयन*/ रहित या स्थिर भचक्र SIDEREAL / FIXED ZODIAC एक निरयण वर्ष 365 . 2563 दिन का होता है। (365 d 6 h 9 min 9.76 s)

EQUINOXES सम्पात-अयन बिंदु

आकाश मध्य मे एक कल्पित रेखा जिसे आकाशीय विषुव वृत्त या नाड़ी वृत्त CELESTIAL EQUATOR कहते है। सूर्य इस नाड़ी वृत्त पर नही घूमता है। वह हमेशा क्रांति वृत्त ECLIPTIC पर घूमता है। दोनो वृत्त 23.30 अंश का कोण बनाते हुए दो स्थानो पर एक दूसरे को काटते है, इन्हे ही सम्पात बिन्दु या अयन बिन्दु कहते है। क्रांति वृत्त के उत्तर दक्षिण एक 9-9 अंश का कल्पित पट्टा है जिसे ही भचक्र कहते है।

सायन भचक्र TROPICAL / MOVABLE ZODIAC :
इसमे मेष का प्रथम बिन्दु वसंत सम्पात होता है। इसकी गति वक्र 50.3″ प्रति वर्ष है। यह गति पृथ्वी के भूमध्य रेखा उन्नत भाग पर सूर्य और चन्द्रमा के आकर्षण के कारण है। सूर्य की वार्षिक गति के साथ प्रतिवर्ष यह सम्पात बिंदु विपरीत दिशा मे मंद गति से घूमता है। इसमे किसी भी आकाशीय पिंड की वसंत सम्पात बिंदु से गणना का देशांश सायन देशांश कहलाता है। इसमे 12 राशियो (प्रत्येक 30 अंश) का प्रारम्भ वसंत सम्पात से होता है, परन्तु क्रांति वृत्त पर विस्तार हमेशा निरयण प्रणाली (प्रत्येक 30 अंश) जैसा नही रहता है। इस प्रणाली मे समयानुसार तारा समूह का एक राशि मे बदलाव होता रहता है।

निरयण भचक्र SIDEREAL / FIXED ZODIAC :
इसमे मेष का प्रथम बिन्दु हमेशा नक्षत्र यानि चित्रा से 180 अंश के कोण पर स्थायी रहता है। क्रांति वृत्त पर इस स्थयी बिंदु से नापे गये देशांश को निरयण देशांश कहते है। यह स्थायी भचक्र 12 राशि व 27 नक्षत्र मे समान रूप से विभाजित है, इनमे वही तारा समूह हमेशा रहता है।

अयनांश AYNAMSHA : अयनांश संस्कृत (अयन = हिलना-डुलाना, चाल। अंश = घटक) शब्द है। भारतीय खगोल मे इसका अर्थ अग्रगमन की राशि है। ◾अग्रगमन PRECESSION एक धुर्णन पिंड के धुर्णन अक्ष का उन्मुखीकरण बदलाव है। ◾स्थायी मेष के प्रथम बिन्दु और चलायमान मेष के प्रथम बिन्दु की कोणीय दूरी अयनांश है, दूसरे शब्दो मे जिस समय सायन और निरयण भचक्र सम्पाती (समान) थे वहा से वसंत सम्पात की पीछे की ओर कोणीय दूरी अयनांश है। ◾आधुनिक खगोल के अनुसार यह सायन भचक्र और निरयण भचक्र का अंतर है। ◾इसी प्रकार आधुनिक खगोल अनुसार सायन या सौर वर्ष निरयण या नाक्षत्र वर्ष से लगभग 20 मिनिट (365 d 6 h 9 min 9.76 s – 365 d 5 h, 48 min 45 s = 20 मिनिट 23. 24 सेकण्ड) अधिक है।

सम्पात बिन्दु 01 (चित्र मे हरा बिंदु) व 02 (चित्र मे लाल बिंदु) को वसंत और शरद सम्पात कहते है। ये सम्पात बिंदु प्रत्येक वर्ष पश्चिम की ओर पीछे हटते जाते है। इनकी गति वक्र है यही गति अयन चलन या विषुव क्रांति या वलयपात कहलाती है। इनका पीछे हटना ही अयन के अंश अर्थात अयनांश PRECESSION OF EQUINOX कहलाता है। सम्पात का एक चक्र 25868 वर्ष मे पूर्ण होता है, अतः औसत अयन बिन्दुओ को एक अंश चलने मे 72 वर्ष लगते है। इसकी मध्यम गति 50″15′” प्रति वर्ष है।

भारत मे विभिन्न प्राचीन सिद्धांतो अनुसार पंचाग बनते है। इन प्राचीन सिद्धांतो पर आधारित अयनांश भी भिन्न-भिन्न होते है। अयनांश साधन सूर्य सिद्धांत अनुसार कठिन है। इसके अनुसार 1800 वर्ष मे अयनांश 00 से + 27 अंश और + 27 से 00 तथा 00 से – 27 तक और इसके बाद पुनः वृद्धि होने लगती है। इस प्रकार अयनांश ± 27 मे झूलती रहती है। सूर्य सिद्धांत अनुसार सन 490 मे अयनांश शून्य था और इसकी वार्षिक गति 54 विकला है। अयनांश साधन ग्रहलाघव अनुसार सबसे सरल है। इसमे 27 अंश होने तक वे घनात्मक अयनांश कहलाते है और इससे अधिक होने पर 54 मे से घटा कर लेने पर वे ऋणात्मक अयनांश कहलाते है। ग्रहलाघव अनुसार शक: 444 मे अयनांश शून्य था इसकी वार्षिक गति 60 विकला प्रतिवर्ष है।

अयनांश साधन : ग्रहलाघव मतेन – इष्ट शक: संवत मे से 444 घटाये, शेष मे 60 का भाग दे लब्धि अंश होगे, शेष मे 12 का गुणा कर गुणन फल मे पुनः 60 का भाग लब्धि कला होगी, शेष मे 30 का गुणा कर गुणन फल मे पुनः 60 का भाग दे लब्धि विकला होगी। इसकी गति 60 विकला वार्षिक है। विभिन्न मतो अनुसार शक: 1865 वर्षारम्भ पर अयनांश निम्न थे।
ग्रहलाघव मत – 23 अंश, 41 कला, 00 विकला। वार्षिक गति 60 विकला।
केतकर मत – 21 अंश, 02 कला, 57 विकला। वार्षिक गति 50 विकला, 13 प्रतिविकला।
मकरींदीय मत- 21 अंश, 39 कला, 36 विकला। वार्षिक गति 54 विकला।
सिद्धांत सम्राट – 20 अंश, 40 कला, 17 विकला। वार्षिक गति 51 विकला।
बीसवी सदी के प्रारम्भ मे दृश्य गणना को महत्व दिया जाने लगा। यदि आकाश मे कोई ग्रह गणितागणित बिन्दु से पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण जहा कही दिखाई देता हो इसे समझ कर उक्त गणित मे ऐसे संस्कार करना चाहिए कि वह दृष्टि पथ मे हो जाय, इसे ही “दृग्गणितैक्य” कहते है। पंचागो मे 1- सौर पक्षीय या आर्ष मतीय पंचाग, 2- वैध सिद्ध दृश्य पंचाग। वैध सिद्ध दृश्य पंचागो मे भी दो मत है पहला रैवत पक्ष, दूसरा चित्रा पक्ष। दोनो मे सायन ग्रह सामान है परन्तु अयनांश मे अंतर होने से ग्रहो मे चार-चार अंश का अंतर आजाता है।

भारत मे इस कम्प्यूटर युग मे 01-01-2010 (05-30 स्टे:टा 🙂 को विभिन्न अयनांश इस प्रकार है।
ऍम अजेना 22।42।46
बी व्ही रमन 22।33।12 / 50
चंद्र हरी 24।45।56
सिरिल फगन 22।42।46
देवदत्त 23।57।54
ऍम अजेना 22।42।46
कृष्णमूर्ति 23।54।23 / 23।53।30 / 23।54।07
मनु 23।39 ।10
एन सी लाहिरी (चित्र पक्षीय) 23।59।46 / 23।59।32
के सी डे 23।58।20
ऍम अजेना 22।42।46
एस पी एस 23।59।30
खुल्लर 23।59।09
चित्रा पक्षीय 24।00।05
मकर संक्रांति – यह निरयण सूर्य का मकर राशि मे प्रवेश है। विभिन्न शताब्दियो में यह विभिन्न तारिखो पर होगी। 16-17 वी सदी मे 09, 10 जनवरी, 17-18 वी सदी मे 11, 12 जनवरी, 18-19 वी सदी मे 13,14 जनवरी, 19-20 वी सदी मे 14, 15 जनवरी और 21-22 वि सदी मे 15, 16 जनवरी को होगी। भारतीय 5000 वर्ष प्राचीन त्योहारो मे केवल यही त्यौहार सौर चक्र अनुसार मनाया जाता है। उत्तरायण का छह माह का मंगल काल यही से प्रारंभ होता है।

अयनांश मे अंतर होने से सूर्योदय, लग्न, ग्रहो के रेखांश, वर्ग, दशा आदि में फर्क आ जाता है। इस कारण तिथि आदि मे अंतर आ जाने के कारण व्रत त्यौहार में फर्क आना स्वाभाविक है। दशादि मे लगभग 2-2 वर्ष का अंतर आ जाता है जिससे ज्योतिषी व दैवज्ञ दोनो उपहसित होते है।

चित्रा पक्षीय अयनांश – भारत सरकार ने सन 1952 (स्व मेघनाथ शाह, अध्यक्ष और स्व एन सी लाहिरी, सचिव) मे पंचांग सुधार समिति CALENDAR REFORM COMMITTEE का गठन किया। जिसकी रिपोर्ट 1955 मे आई, इसके संसोधन अनुसार चित्रा पक्षीय अयनांश को मान्य किया गया। इस अनुसार ईसवी सन 285 या शक: 207 मे अयनांश शून्य था अर्थात सायन और निरयण भचक्र का प्रारम्भ मेष के प्रथम बिन्दु वसंत सम्पात vernal equinox से साथ-साथ था। यह समय 22 मार्च 285 रविवार भारतीय प्रामाणिक समय 21 घण्टे 27 मिनिट था। इस समय चित्रा नक्षत्र (Spica star α virgins) की सायन व निरयण लम्बाई 180।00।03 थी। इसी दिन मध्यम सूर्य की लम्बाई भी 360 अंश थी।

पचांग सुधार समिति के सुझाव अनुसार भारत सरकार के अधीन खगोलीय एफेमेरीज ने 5″.8 कम कर चित्रा पक्षीय अयनांश को ग्रहण किया। इसी सिफारिस अनुसार 21-03-1956 से अयनांश 23 अंश 15 कला प्रचलन मे है। इसी मे सन 1985 में अल्प 0″. 658 का सुधार किया गया। इस प्रकार 01 जनवरी 2010 को अयनांश 24 अंश 00 कला 05 विकला है और इसकी वार्षिक गति 50 विकला है। यह अयनांश अंतर्राष्ट्रीय खगोल संस्था जर्मनी Asronamisches Rechen Iinstitute of Heidelgerg GERMANY द्वारा पदत्त सांख्यकी के समान है।

के पी अयनांश चित्रा पक्षीय या लाहिरी अयनांश से पुरानी 5.36 कला और नयी 5.24 कला अधिक है। के पी अयनांश की गति 50.2388475 है।

सायन या निरयण ?
सायन या निरयण गणना यह ज्योतिष का सबसे विवादस्पद और अंधकार पक्ष है। भारतीय ज्योतिष मे गणना का अधार निरयण सिद्धांत है, जबकि पाश्चात्य ज्योतिष मे गणना का आधार सायन सिद्धांत है।
सायन – पृथ्वी की धुरी की गति को अयन कहा जाता है। भचक्र मे देशांश नापने के लिए सन्दर्भ बिंदु उत्तरी ध्रुव से 90 अंश है। यह संदर्भ बिंदु अयन की गति अनुसार बदलता रहता है। यही सायन प्रणाली कहलाती है।
निरयण – इस प्रणाली में सन्दर्भ बिंदु स्थिर रहता है। यह अयन के परिवर्तन से परिवर्तित नही होता है। अतः भचक्र का जो भाग जिस राशि के लिए निश्चित है वह हमेशा वही रहता है। इसलिए एक संकेत के लिए राशि चक्र के आवंटन को नही बदला गया है। इसमे सूर्य से ग्रह की गति व दूरी पृथ्वी की धुरी की गति से स्वतंत्र है।

दूसरा तथ्य यह है की आकाश के एक भाग का प्रभाव जो विकिरण और अन्य पभावो के कारण है उसे उसके झुकाव से जोड़ा जाता है जो तर्क सम्मत नहीं है। अतः निष्कर्ष यही है कि सही भविष्यवाणी के लिये निरयण प्रणाली ही ठीक है। 20 सदी मे कई पाश्चात्य ज्योतिषियो ने निरयण प्रणाली को अपनाया है।

01- विद्जनो का मानना है कि सायन सिद्धांत से केवल सूर्य से पृथ्वी की स्थति ज्ञात करना चाहिये ताकि अयन, ऋतुऐ, वर्षादि का निर्धारण किया जा सके।
02- प्राकृतिक उपद्रव, आकाशीय पिण्डादि का उदयास्त, ग्रहणादि की गणना के लिए सायन गणना ठीक है, परन्तु ग्रह की राशि ज्ञान के लिए उपयुक्त नही है।
03- विद्जनो का यह भी मानना है कि भारतीय ज्योतिष सितारो पर आधारित है और कोई ग्रह जब इन पर से गुजर रहा हो, तो वह सितारे के प्रभाव के अनुरूप या अपना व्यवहार सितारे के अनुरूप कर, फल देता है।
04- निरयण प्रणाली सितारो के सम्बन्ध मे ग्रहो की संगणना देती है और सायन प्रणाली सौर प्रणाली के समन्वय से ग्रहो की स्थति दर्शाती है। इसलिये निरयण प्रणाली ज्योतिष मे भविष्यवाणियो के लिए उपयुक्त है। 05- उत्तरायण का प्रारम्भ सदैव प्रत्येक वर्ष 22 दिसम्बर से होता है, तथा ज्योतिर्विद (फलितज्ञ, गणितज्ञ) खगोलविद आदि इसे मानकर सभी गणना इसी से करते है। वही निरयण गणना से यह कभी 13, कभी 14, कभी 15 जनवरी को होगा, जिसे मकर संक्रांति* कहते है, तथा व्यवहार में उत्तरायण यहा से मानते है। कथनी और करनी का यह अंतर विचारणीय है।
06- इसी प्रकार भारतीय जातक का सूर्य यदि तुला मे नीच का हो, तो वही पाश्चात्य जातक का वृश्चिक मे मित्र क्षेत्री होगा क्या यह अंतर विचारणीय नही है।

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